हर ग़ुस्सा प्रतिरोध नहीं होता
प्रत्येक असहमत व्यक्ति ब्राह्मणवादी नहीं होता
हर इज्ज़त यह नहीं सूचित करती कि कोई किसी को बाप दादा मानकर चल रहा है. कोई भी आलोचना रचना से बड़ी नहीं होती
विलाप विवेचना नहीं होता.
साहित्य अस्वीकार से ही विकसित नहीं होता. उसके लिए सहृदय विनम्रता की भी आवश्यकता होती है.
अपने को अतिशुद्ध मानना और किसी के भी प्रशंसक को चाटुकार समझ लेना बड़ा आसान है. लेकिन विरोधी के सही तर्क को झेलना और उसे स्वीकार करना मुश्किल है
with thanks to shahsi bhushan jee
Sunday, January 16, 2011
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