Wednesday, May 18, 2011

मन कि माला


जब भी मन कि माला फेरी, मर्यादा ने आँख तरेरी

परम्परा के लश्कर जागे, गूंजी अम्बर तक रण - भेरी

जिनको है स्वीकार सदा से तालाबों में घिरकर जीना

वो क्या जाने क्या होता है झरनों का पावन जल पीना

आँखों में आकाश सजाना बाहों में बादल भर लेना

कस्तूरी के लिये मचलकर खुद को ही पागल कर लेना

सूरज के संग जगने सोने वाले कैसे जान सकेंगे

मतवालों की इस महफ़िल में किसी जल्दी किसी देरी

जब भी मन कि माला फेरी .........

जो देखा है सूरदास ने आँखों वाले क्या देखेंगे

जो महसूस किया मीरा ने ज्ञानि – ध्यानी क्या सोचेंगे

दीवानों की इस बस्ती में कैसा पाना कैसा खोना

आसमान की चादर की ओढी धरती का कर दिया बिछौना

जिसने अपने को पहचाना जिसको मन का मिला खजाना

दुनिया भर की दौलत उसके आगे है मिटटी की ढेरी

जब भी मन कि माला फेरी .....

ईश्वर की आँखों से छलके होंगे सूरज – चन्दा - तारे

मुस्कानों के पीछे छुपकर बैठे हैं दो आंसू सारे

स्वर्ण - पत्र पर खुदवाई कितनों ने अपनी यश गाथाएं

काल जयी होने की धुन में बदली सारी परिभाषाएँ

पर वो ही जीवित रह पाया जिसने आंसू को दुहराया

अपने मन के भोज पत्र पर मन की सच्ची पीर उकेरी
                      

                             डा. कीर्ति काले

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